सोते हैं फैल फैल के सारे पलंग पर हम चुप अलग पड़े हैं किनारे पलंग पर अफ़्शाँ के ज़र्रे देख के सारे पलंग पर समझा मैं लोटते हैं सितारे पलंग पर पूछो न मुझ से शिद्दत-ए-दर्द-शब-ए-फ़िराक़ तड़पा किया मैं रात को सारे पलंग पर लिपटे हुए पड़े रहे पट्टी से हम अलग सोया किए वो चैन से सारे पलंग पर बेचैन हो के फ़र्श पे लग जाएगी जो आँख चलिए ख़ुदा के वास्ते प्यारे पलंग पर उस मह बग़ैर नींद न आई तमाम रात लेटे हुए गिना किए तारे पलंग पर तोशक के फूल बन गए अंगारे हिज्र में दहका की एक आग सी सारे पलंग पर क़िस्मत है आगे वस्ल मयस्सर हो या न हो आए तो मिन्नतों से वो बारे पलंग पर ईज़ाएँ सुब्ह-ए-हिज्र की कहने भी हम न पाए वो शाम ही से आज सिधारे पलंग पर बाहर हुआ मैं जामे से अपने शब-ए-विसाल कपड़े जो उस ने अपने उतारे पलंग पर उस माह-रू की दीद का अल्लाह रे इश्तियाक़ गर्दूं से टूटे पड़ते हैं तारे पलंग पर शब को ख़जिल थी उस की सफ़ेदी से चाँदनी चादर कसी थी ऐसी तुम्हारे पलंग पर फ़ुर्क़त की रात रो रो के दरिया बहा दिए तकिए बने नहंग हमारे पलंग पर पट्टी के नीचे बैठा रहा रात-भर 'क़लक़' रक्खा क़दम न ख़ौफ़ के मारे पलंग पर