सोज़-ए-मोहब्बत दर्द-ए-जुदाई तू क्या जाने मुझ से पूछ किस को कहते हैं तन्हाई तू क्या जाने मुझ से पूछ पत्थर और शीशे से बे-शक शीश-महल बन सकता है घर कहते हैं किस को भाई तू क्या जाने मुझ से पूछ दिल की लगी से और तो कुछ हासिल न हुआ इस दुनिया में मुफ़्त में हाथ आई रुस्वाई तू क्या जाने मुझ से पूछ ग़म से तअल्लुक़ क्या है मेरा दर्द से कैसा रिश्ता है दुनिया ही जब समझ न पाई तू क्या जाने मुझ से पूछ जज़्बों को तहरीक मिले तो अनहोनी हो सकती है इश्क़ में है कितनी गहराई तू क्या जाने मुझ से पूछ जिन की आँख में फाँस गड़ी है मेरी आँख के तिनके पर करते हैं अंगुश्त-नुमाई तू क्या जाने मुझ से पूछ महफ़िल में ख़ामोशी से क्यों मैं ने इतना काम लिया इस में भी थी कुछ दानाई तू क्या जाने मुझ से पूछ तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पर आमादा करते थे हालात बहुत दिल को क्यों ये बात न भाई तू क्या जाने मुझ से पूछ उस का चेहरा उस की ज़ुल्फ़ें उस की आँखें उस के होंट इस पर ज़ालिम की अंगड़ाई तू क्या जाने मुझ से पूछ 'शौक़' न कुछ जीने की ख़ुशी है और न कुछ मरने का मलाल जीवन है ग़म की शहनाई तू क्या जाने मुझ से पूछ