सुब्ह चले या शाम चले साक़ी दौर-ए-जाम चले राहबरी की धुन हो जिसे साथ मिरे दो गाम चले साथ ज़बाँ ने जब न दिया नज़रों के पैग़ाम चले हम जो दाना बनते थे ख़ुद ही ज़ेर-ए-दाम चले दिल की नगरी कैसी है पत्थर सुब्ह-ओ-शाम चले जिन की वफ़ा पर नाज़ाँ था कर के वही बद-नाम चले इल्म-ओ-अदब की दुनिया से 'ज़ाकिर' भी गुमनाम चले