सुब्ह से शाम तक रहे साए फिर अचानक ही खो गए साए ज़िंदगी का सुलूक कैसा है इक मुहाजिर से पूछते साए ज़िंदगी के हिसाब में गुम हैं बार-ए-हस्ती से हाँपते साए मेरी तन्हाइयों के शो'लों में नींद से ख़्वाब तक जले साए कैसी चंदन के पास ख़ुशबू है साँप जैसे हैं रेंगते साए झील में दिल की याद के पत्थर दायरा बन के फैलते साए ये तशद्दुद की ख़ौफ़नाक हवा जिस्म-ओ-जाँ क्या हैं काँपते साए