सुब्ह का अफ़्साना कह कर शाम से खेलता हूँ गर्दिश-ए-अय्याम से उन की याद उन की तमन्ना उन का ग़म कट रही है ज़िंदगी आराम से इश्क़ में आएँगी वो भी साअ'तें काम निकलेगा दिल-ए-नाकाम से लाख मैं दीवाना-ए-रुस्वा सही फिर भी इक निस्बत है तेरे नाम से सुब्ह-ए-गुलशन देखिए क्या गुल खिलाए कुछ हवा बदली हुई है शाम से हाए मेरा मातम-ए-तिश्ना-लबी शीशा मिल कर रो रहा है जाम से बे-ख़ुदी पर शायद उस का बस नहीं जोश आ जाता है उन के नाम से हर-नफ़स महसूस होता है 'शकील' आ रहे हैं नामा-ओ-पैग़ाम से