सुब्हा से मतलब न कुछ ज़ुन्नार से हैं जुदा हम काफ़िर ओ दीं-दार से इश्क़ है उस अबरू-ए-ख़मदार से काटूँगा इक दिन गला तलवार से दिल मिरा अटका है चश्म-ए-यार से है मोहब्बत मर्दुम-ए-बीमार से यूँ एवज़ लूँ जी में है अग़्यार से घर जला दूँ आह-ए-आतिश-बार से हैं अयाँ कुछ इश्क़ के आसार से शोले उठते हैं दिल-अफ़गार से क्यूँ न दिल अपना नज़ार-ओ-ज़ार हो कुछ नज़र आते हो तुम बेज़ार से रश्क से दिल में न क्यूँ जल जाए शम्अ लौ निकलती है तिरे रुख़्सार से हिज्र में हो क्यूँ न लज़्ज़त वस्ल की है मज़ा इंकार में इक़रार से कूचा-ए-काकुल में खो कर नक़्द-ए-दिल मोल सौदा लाए हम बाज़ार से झाँके रौज़न से जो तुझ को रख़्ना-गर फोड़ डालूँ सर को मैं दीवार से जान आफ़त में पड़ी है ऐ तबीब मौत बेहतर हिज्र के आज़ार से हर क़दम पर शोर-ए-महशर है बपा पिसते हैं दिल आप की रफ़्तार से ख़िज़्र ला कर दें अगर आब-ए-बक़ा मैं न बदलूँ शर्बत-ए-दीदार से तेग़-ए-अबरू का जो बोसा दे तो दे वर्ना ज़ालिम क़त्ल कर तलवार से ख़िलअत-ए-उर्यानी और जागीर-ए-दश्त हम ने पाया इश्क़ की सरकार से सर्व के चेहरा कमर सीना कहाँ इस को क्या तश्बीह क़द्द-ए-यार से हिज्र में जंगल से है गुलशन सिवा गुल भी मुझ को कम नहीं हैं ख़ार से जा-ए-आसाइश नहीं है दूसरी बढ़ के तेरे साया-ए-दीवार से रोज़ तन्हाई में रहती है यहाँ गुफ़्तुगू पहरों ख़याल-ए-यार से ज़ुल्फ़-ओ-आरिज़ चश्म-ओ-अबरू ख़ाल-ओ-ख़त दिल नहीं बचता इन्हीं दो-चार से बोसा अब क़ंद-ए-मुकर्रर हो गया दूनी लज़्ज़त हो गई तकरार से शर्त में बोसों की भी किया लुत्फ़ है जीत में कम-तर मज़ा है हार से एक गुल-रू पर हुआ दिल दाग़ दाग़ फूल लाए आज हम गुलज़ार से कोई मय-कश फिर न बैठा एक दम मैं जो उठ्ठा ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार से बुलबुलें उस रश्क-ए-गुल के हिज्र में नोचती हैं अपने पर मिन्क़ार से 'सेहर' भेजेंगे ग़ज़ल ये यार को शौक़ है उस को मिरे अशआर से