दिल की बस्ती पे किसी दर्द का साया भी नहीं ऐसा वीरानी का मौसम कभी आया भी नहीं हम किसी और ही आलम में रहा करते हैं अहल-ए-दुनिया ने जहाँ आके सताया भी नहीं हम पे इस आलम-ए-ताज़ा में गुज़रती क्या है तुम ने पूछा भी नहीं हम ने बताया भी नहीं कब से हूँ ग़र्क़ किसी झील की गहराई में राज़-ए-अय्याम मगर अक़्ल ने पाया भी नहीं बे-ज़मीनी का ये दुख और ज़मीं भी अपनी बेबसी ऐसी कि नुक्ता ये उठाया भी नहीं बे-जिहत उठते हुए ठोकरें खाते ये क़दम राहबर मेरा मुझे राह पे लाया भी नहीं उस ने हमदर्दी के पैमाँ तो बहुत बाँधे थे आ पड़ी है तो मिरा हाथ बटाया भी नहीं दिल की दीवारों से लिपटी है किसी शाम की याद जाने वाला तो कभी लौट के आया भी नहीं सर्द-मेहरी कि जिगर छलनी किए देती है उस ने यूँ देखने में हाथ छुड़ाया भी नहीं उस से उम्मीद-ए-वफ़ा बाँध रखी है 'शाहिद' जिस ने ये बार मोहब्बत का उठाया भी नहीं