सुब्ह-दम रोती जो तेरी बज़्म से जाती है शम्अ साफ़ मेरे सोज़-ए-ग़म का रंग दिखलाती है शम्अ जिस तरह काले के मन के रू-ब-रू गुल हो चराग़ देख कर तावीज़-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार बुझ जाती है शम्अ सिर्फ़ परवाना अदब से दम-ब-ख़ुद रहता नहीं तेरे रोब-ए-हुस्न से महफ़िल में थर्राती है शम्अ घेर लेते हैं तुझे परवाने उस को छोड़ कर जिस में तू हो कब फ़रोग़ उस बज़्म में पाती है शम्अ कारबंद-ए-अद्ल होते हैं जो हैं रौशन-दिमाग़ बज़्म में हर सम्त यकसाँ नूर पहुँचाती है शम्अ पर्दा-ए-फ़ानुस से बाहर नहीं रखती क़दम रू-ब-रू तेरे रुख़-ए-रौशन के शरमाती है शम्अ जा-ए-गिर्या सोहबत-ए-अहल-ए-तमाशा है 'असर' है बजा रोती हुई जो बज़्म में आती है शम्अ