सुब्ह-ए-गुलशन में हो गर वो गुल-ए-ख़ंदाँ पैदा बैज़ा-ए-ग़ुंचा से हो बुलबुल-ए-नालाँ पैदा अश्क है हम-रह-ए-आह-ए-दिल-ए-सोज़ाँ पैदा क्या तमाशा है कि आतिश से है बाराँ पैदा है अजब कार नुमायाँ तिरे चश्म ओ लब से पल में मर जाते हैं हम दम में हैं फिर हाँ पैदा क़द तिरा ऐ बुत-ए-गुल-पोश हो गर साया-फ़गन तो क़यामत हो सर-ए-ख़ाक-ए-शहीदाँ पैदा ले उड़ा बाद के मानिंद प पानी साक़ी कश्ती-ए-मय हुई जूँ तख़्त-ए-सुलैमाँ पैदा हूँ वो मजनूँ कि करे है मिरी पा-बोसी को सिलसिला हल्क़ा-ए-चश्मान-ए-ग़ज़ालाँ पैदा हँस के दंदाँ को दिखा दो तो न शबनम से सहर दहन-ए-ग़ुंचा करे बाग़ में दंदाँ पैदा ज़ुल्फ़ ओ ख़त देख तिरे रुख़ पे न क्यूँ हैराँ हों चश्मा-ए-महर में हैं सुम्बुल-ओ-रैहाँ पैदा क्या ग़ज़ब है ये तिरे दामन-ए-मिज़्गाँ की झपक इश्क़ के दिल से हुई आतिश-ए-पिन्हाँ पैदा तुझ को दूँ हूर से निस्बत तो ये मेरा है क़ुसूर कि जहाँ में नहीं तुझ सा कोई इंसाँ पैदा तेरी ख़िदमत को परिस्ताँ में बनी हैं परियाँ और ग़ुलामी के लिए हैं तिरी ग़िल्माँ पैदा ये तिरे ज़ेर-ए-ज़क़न दस्त-ए-हिनाई है कहाँ सेब-ए-जन्नत से है सर-पंजा-ए-मर्जां पैदा तुर्फ़ा-तर लिख ग़ज़ल इस बहर में इक और 'नसीर' करते हैं गौहर-ए-मअ'नी को सुख़न-दाँ पैदा