सुबू में अक्स-ए-रुख़-ए-माहताब देखते हैं शराब पीते नहीं हम शराब देखते हैं किसी भी तौर उठे पर तिरी निगाह उठे जला के घर तुझे ख़ाना-ख़राब देखते हैं उसे न देख सकेंगे ऐ काश इन्हें देखें वो कौन हैं जो इसे बे-नक़ाब देखते हैं हमारे चेहरे पे लिक्खा गया फ़साना-ए-वक़्त हम आईना नहीं तकते किताब देखते हैं वो है ही लाइक़-ए-सज्दा सो हम ने सज्दा किया वो और हैं जो अज़ाब ओ सवाब देखते हैं हवस न जान तुझे छू के देखना ये है तुझे ही देख रहे हैं कि ख़्वाब देखते हैं