सुबू उठाऊँ तो पीने के बीच खुलती है कोई गली मेरे सीने के बीच खुलती है तमाम रात सितारे तलाश करते हैं वो चाँदनी किसी ज़ीने के बीच खुलती है तू देखता है तो तश्कील पाने लगता हूँ मिरी बिसात नगीने के बीच खुलती है गिरफ़्त-ए-होश नहीं सहल दस्त-बरादारी गिरह ये सख़्त क़रीने के बीच खुलती है किनारा-ए-मह-ओ-अंजुम जहाँ तिलक भी हो ये रौशनी इसी जीने के बीच खुलती है न बादबान कोई और न रूद-ओ-सम्त-ओ-सुकूँ तो किस की खींच सफ़ीने के बीच खुलती है रुकूँ तो देख सकूँ आसमान की खिड़की जो एक बार महीने के बीच खुलती है ज़रा सा और भी कीना ऐ कीना-परवर-ए-जाँ मिरी नज़र तिरे कीने के बीच खुलती है ये कौन छोड़ गया है मक़ाम-ए-अस्ल 'नवेद' ये किस की बास दफ़ीने के बीच खुलती है