सूद-ओ-ज़ियाँ का 'इश्क़ में रखते हिसाब हैं कितने ग़रीब दिल के ये अहल-ए-निसाब हैं काँटों बग़ैर कब कहीं मिलते गुलाब हैं ग़म के बिना मसर्रतें समझो सराब हैं हम तो दुहाई देंगे जिहालत की हश्र में वो क्या जवाब देंगे जो अहल-ए-किताब हैं ख़ल्वत में उन की हरकतें बस हम से पोछिए दुनिया की जो निगाह में ‘इज़्ज़त-मआब हैं इक शख़्स ही से सिर्फ़ हैं मंसूब सब के सब आए जो ज़िंदगी में मिरी इंक़लाब हैं इक दिल में गर मिली न जगह ऐ 'सदा' तो क्या तुझ से भी बढ़ के दुनिया में ख़ाना-ख़राब हैं