सुकून-ए-दिल किसी रंगीं अदा ने लूट लिया सितम है अपने चमन को ख़िज़ाँ ने लूट लिया जो ज़र्रा था वो तजल्ली में बर्क़-ए-ऐमन था नज़र पड़ी थी कि उस बर्क़-अदा ने लूट लिया कहाँ की तौबा-ओ-ताअ'त कहाँ की रुस्वाई मताअ'-ए-ज़ोह्द को उठ कर घटा ने लूट लिया क़फ़स में भी न बची जान ग़म-नसीबों की यहाँ भी मौज-ए-नसीम-ओ-सबा ने लूट लिया सितम के बाद तो इम्काँ नहीं है शिकवे का वो क्या करे जिसे तेरी वफ़ा ने लूट लिया तजल्लियों को कहे कौन जब दो-आलम को तिरे हिजाब की दिलकश अदा ने लूट लिया कहूँ मैं इस के सिवा अपना हाल क्या 'शब्बीर' वफ़ा-परस्त को इक बेवफ़ा ने लूट लिया