सुकून-ए-क़ल्ब निहाँ है हसीं नज़ारों में मोहब्बतों के हैं पैग़ाम आबशारों में न पूछ हिज्र के मारों का हाल-ए-दिल हम से अज़ाब सहते हैं तन्हाई का बहारों में हर एक मौज में हंगामा है क़यामत का सुकूत कितना है देखो ज़रा किनारों में किसी भी तौर ये बिल्कुल सनद नहीं बनती बढ़ा के पेश जो करते हैं इश्तिहारों में कुछ इस मिज़ाज से जीवन यहाँ गुज़ारा है हमारा नाम भी आएगा ख़ाकसारों में उसे भी हम तो ग़नीमत ही जानते हैं आज 'नज़र' जो आते हैं दो चार ग़म-गुसारों में हमारा सब से बड़ा अलमिया यही तो है ये दहर बट जो गया है कई हिसारों में ज़रूरी क्या है हर इक बात खुल के कहने की बताया कीजिए कुछ कुछ 'नज़र' इशारों में