सुकूँ नसीब न हो दूर इज़्तिराब न हो वो दर्द दे मुझे जिस का कोई जवाब न हो हुसूल-ए-हासिल-ए-उल्फ़त में यूँ ख़राब न हो फ़ुज़ूल दिल कहीं वाबस्ता-ए-अज़ाब न हो शराब-ए-नाब की हर मौज पर मुझे शक है किसी हसीं का मचलता हुआ शबाब न हो उठा ब-शौक़ क़दम तिश्ना-काम-ए-वादी-ए-इश्क़ तिरी निगाह का हासिल कहीं सराब न हो किसी के तीर-ए-नज़र दिल में इस अदा से चुभें कि ज़ख़्म गहरे पड़ें दिल में इज़्तिराब न हो ये दिल-फ़रेबी-ए-हर-बर्ग-ए-गुल अरे तौबा जमाल-ए-नाज़ की बिखरी हुई किताब न हो जवाब-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना से दिल रहा महरूम वो क्या सवाल जो शर्मिंदा-ए-जवाब न हो जमाल-ए-तूर जिसे कह रहे हैं अहल-ए-जमाल कहीं वो हुस्न का इक परतव-ए-नक़ाब न हो वफ़ा का शीशा-ए-दिल भी है कितना नाज़ुक सा अजब हुनर है कि इस का कोई जवाब न हो जहान-ए-दिल का जो ज़र्रा है वो मुनव्वर है वो दाग़-ए-दिल नहीं जो रश्क-ए-आफ़्ताब न हो मिज़ाज-ए-हुस्न हक़ीक़त में इक क़यामत है किसी के शौक़ में इंसाँ कोई ख़राब न हो निगाह-ए-शौक़ 'ज़िया' हम उसे न मानेंगे जो बारगाह-ए-तजल्ली में बारयाब न हो