सुकून प्यार तबस्सुम बहार गुल शबनम ख़ुशी में ज़ीस्त को क्या क्या समझ गए थे हम ग़मों से क़ल्ब-ओ-नज़र का बदल गया आलम मगर मिज़ाज-ए-तबस्सुम न हो सका बरहम ये किस को ढूँडते फिरते हैं मेरे दीदा-ए-नम कहाँ वो लोग जो अब बाँट लें हयात के ग़म किस आफ़्ताब-सिफ़त शख़्स के रुके थे क़दम चराग़ दैर-ओ-हरम के हैं आज तक मद्धम जुनूँ की राह से गुज़रा नहीं कोई शायद किसी जगह तो दिखाई दे कोई नक़्श-ए-क़दम ख़िरद पहुँच के वहाँ आज नाज़ करती है वो जिस मक़ाम पे कल तक गुज़ार आए हम रह-ए-वफ़ा से गुज़रना मुहाल हो जाता अगर 'नसीब' न होता हमारे साथ ये ग़म