सुकून-ए-दिल न मयस्सर हुआ ज़माने में न याद रखने में तुम को न भूल जाने में हमेशा वुसअ'त-ए-अफ़्लाक में रहा है ग़म कहाँ क़याम है शाहीं का आशियाने में उरूज-ए-तीरगी-ए-शब से हो सहर पैदा यही निज़ाम है दुनिया के कार-ख़ाने में शफ़क़ के ख़ून की सुर्ख़ी भी हो गई शामिल सहर-ब-दोश सितारों के झिलमिलाने में अभी बहार का कुछ और इंतिज़ार करो कि थोड़ी देर है कलियों के मुस्कुराने में ये वो मता-ए-गिराँ है जो मिल नहीं सकती सुकून-ए-दिल की तमन्ना न कर ज़माने में कभी क़रार दिल-ए-बे-क़रार को भी मिले इलाही कौन कमी है तिरे ख़ज़ाने में किसी से कुछ भी शिकायत करूँ तो क्या हासिल मिला न कोई वफ़ा-आश्ना ज़माने में गुलों की बज़्म ही रंगीनियाँ ब-दोश नहीं हर एक नक़्श हसीं है निगार-ख़ाने में में रौंदता हुआ काँटों को यूँ गुज़रता हूँ कि रह-रवों को सुहूलत हो आने जाने में वो एक तुम हो कि तुम को किसी ने कुछ न कहा वो एक हम हैं कि रुस्वा हुए ज़माने में तिरे ख़याल से आती नहीं जो लब पे मिरे वही तो काम की इक बात थी फ़साने में वो इज़्तिराब-ए-मुसलसल का लुत्फ़ क्या जाने मुसीबतों से जो घबरा गया ज़माने में कुछ अंदलीब का ख़ून जिगर भी है शामिल गुलों की बज़्म की रंगीनियाँ बढ़ाने में हमीं तो लज़्ज़त-ए-आज़ार के नहीं ख़ूगर उन्हें भी लुत्फ़ सा आता है कुछ सताने में क़ुसूर उन की निगाहों की शोख़ियों का भी है हमारी जुर्रत-ए-शौक़-ओ-तलब बढ़ाने में रहेगा मुद्दतों चर्चा मिरा ज़बानों पर किसी की बज़्म से 'अनवार' उठ के जाने में