सुकून-ओ-सब्र लुटा होश का ख़ज़ाना गया तुम्हीं बताओ ख़ुदारा कि मेरा क्या न गया गिराई बर्क़-ए-नज़र-सोज़ बारहा लेकिन मज़ाक़-ए-दीद हमारा शिकस्त खा न गया ख़ुदा की ज़ात पे इंसाँ ने कर दिए हमले फ़रेब-ए-अक़्ल से जब आप में रहा न गया हमारे ज़ौक़-ए-नज़र ने तो ख़ूब काम किया छुपे हज़ार तरह वो मगर छुपा न गया तमाम उम्र जलाया चराग़-ए-दिल मैं ने शब-ए-सियाह का लेकिन ये सिलसिला न गया ख़ुलूस-ए-दिल में ही 'अंजुम' कमी रही होगी कि वो क़रीब रहे फिर भी फ़ासला न गया