सुकूँ-परवर निगाहों के सहारे छीन लेती है सुनामी जब भी आती है किनारे छीन लेती है हँसी भी छीन लेती है ख़ुशी भी छीन जाती है बिगड़ जाती है क़िस्मत तो सितारे छीन लेती है मुसीबत जब भी आती है तो आँसू ले के आती है लबों से मुस्कुराहट के नज़ारे छीन लेती है कोई होता नहीं है पूछने वाला ये क़िस्मत तो ग़रीबों में हमारे सब सहारे छीन लेती है विदाअ' हो कर चली जाती हैं जब भी बेटियाँ घर से तो फिर माँ बाप की आँखों के तारे छीन लेती है पिता को नाज़ था जिस पर वही औलाद फिर इक दिन यक़ीं भी तोड़ देती है सहारे छीन लेती है बहारें जब कभी गुलशन से अपने रूठ जाती हैं सभी गुलशन से वो रंगीं नज़ारे छीन लेती है मुक़द्दर को बिगड़ते देर लगती ही नहीं 'इंदौरी' किसी की बद-दुआएँ सब बहारें छीन लेती हैं