सुकूत-ए-ग़म को भी तर्ज़-ए-बयाँ कहना ही पड़ता है मोहब्बत में ख़मोशी को ज़बाँ कहना ही पड़ता है कभी हम मेहरबाँ को मेहरबाँ कहते भी डरते हैं कभी ना-मेहरबाँ को मेहरबाँ कहना ही पड़ता है तक़ाज़ा-ए-वफ़ा कहिए इसे या मस्लहत कहिए ज़बाँ रख कर भी ख़ुद को बे-ज़बाँ कहना ही पड़ता है कहाँ तक ज़ब्त का दामन न छोड़ें हम भी इंसाँ हैं किसी से तो कभी दर्द-ए-निहाँ कहना ही पड़ता है कभी ऐसा भी होता है कि ख़ुद मंज़िल से घबरा कर ग़ुबार-ए-कारवाँ को कारवाँ कहना ही पड़ता है मयस्सर जिस क़फ़स में हो गुलिस्ताँ की सी आज़ादी तो फिर ऐसे क़फ़स को आशियाँ कहना ही पड़ता है गुज़र जाते हैं जो लम्हे तिरी यादों के साए में उन्हें तस्कीन-ए-दिल आराम-ए-जाँ कहना ही पड़ता है जहाँ सय्याद रख देता है कुछ तिनके नशेमन के हमें फिर उस जगह को आशियाँ कहना ही पड़ता है हरीम-ए-नाज़ में फ़रियाद का क्या काम ऐ 'जौहर' फ़ुग़ाँ को भी यहाँ नंग-ए-फ़ुग़ाँ कहना ही पड़ता है