रसन-ओ-दार से या कू-ए-बुताँ से उट्ठे फ़ित्ना हर हाल में फ़ित्ना है जहाँ से उट्ठे कितने जाँ-सोज़ ओ दिल-आवेज़ हैं वो नग़्मे भी शो'ला बन कर जो मिरे हुस्न-ए-बयाँ से उट्ठे दोनों आलम में कहीं उन को ठिकाना न मिला जो तिरी बज़्म से उट्ठे वो जहाँ से उट्ठे हाए वो नाले कि जो अर्श-ए-बरीं तक पहुँचे उफ़ वो तूफ़ाँ जो मिरे अश्क-ए-रवाँ से उट्ठे कशिश-ए-हुस्न ने इक गाम भी चलने न दिया फिर वहीं बैठ गए लोग जहाँ से उट्ठे काम कुछ कर न सका वाइज़-ए-नादाँ का तिलिस्म कितने तूफ़ाँ मिरी ख़ामोश फ़ुग़ाँ से उट्ठे इन हिजाबात की अज़्मत को कहूँ क्या 'जौहर' जो यक़ीं बन के मिरे वहम-ओ-गुमाँ से उट्ठे