सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ ख़ला में अपनी सदा का फैला ग़ुबार देखूँ अजब नहीं है कि आ ही जाए वो ख़ुश-समाअत दयार-ए-दिल से मैं क्यूँ न उस को पुकार देखूँ खड़ी है दीवार आँसुओं की मिरे बराबर तो किस तरह मैं तिरी तमन्ना के पार देखूँ बिखरता जाता हूँ जैसे तस्बीह के हों दाने जब उस के आँसू क़तार-अंदर-क़तार देखूँ वो मेरा इसबात चाहता है सो जब्र ये है मैं अपने होने में उस को बे-इख़्तियार देखूँ जो एक दम में तमाम रूहों को ख़ाक कर दे बदन से उड़ता हुआ इक ऐसा शरार देखूँ बहुत दिनों से वहाँ मैं अपना ही मुंतज़िर हूँ तो ख़ुद को इक दिन तिरी गली से गुज़ार देखूँ