सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना बदन पर डाल कर ज़ख़्मों की चादर सोचते रहना नहीं कम जाँ-गुसिल ये मरहला भी ख़ुद-शनासी का कि अपने ही मआनी लफ़्ज़ बन कर सोचते रहना ज़बाँ से कुछ न कहना बावजूद-ए-ताब-ए-गोयाई खुली आँखों से बस मंज़र ब मंज़र सोचते रहना किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहो लोगो मसाइल कम नहीं फिर ज़िंदगी भर सोचते रहना चराग़-ए-ज़िंदगी है या बिसात-ए-आतिश-ए-रफ़्ता जला कर रौशनी दहलीज़-ए-जाँ पर सोचते रहना अजब शय है 'फ़ज़ा' ज़ेहन ओ नज़र की ये असीरी भी मुसलसल देखते रहना बराबर सोचते रहना