सुलगता दश्त यकायक बुझा नहीं करता ये वक़्त-ए-हिज्र है ऐसे कटा नहीं करता ज़रा सा फ़र्क़ है शीशे में और इस दिल में ये टूटता तो है लेकिन सदा नहीं करता दिलों में इश्क़ की खेती अफ़ीम जैसी है कि इस के बा'द यहाँ कुछ उगा नहीं करता कुछ एक लोग मोहब्बत से ख़ौफ़ खाते हैं सभी को मौसम-ए-बाराँ हरा नहीं करता पता ये हिज्र से इतना तो चल गया मुझ को कोई किसी से बिछड़ कर मरा नहीं करता ये ज़ख़्म लाज़मी है हाल की गवाही को यही मैं सोच के इन की दवा नहीं करता कुछ एक रोज़ से इक बेकली सी रहती है कहीं वो याद तो मुझ को किया नहीं करता