वो ख़ुद अपने से जब मिला होगा दो घड़ी को तो खो गया होगा लोग मिलते हैं बे-ग़रज़ अब भी कोई अफ़्साना सुन लिया होगा किस तवक़्क़ो पे इंतिज़ार करें था वो झोंका गुज़र गया होगा क्या मिला रात भर भटकने से चाँद ख़ुद भी ये सोचता होगा कोई ख़ुशबू जगाएगी फिर से फिर नया कोई सिलसिला होगा मुझ को जिस पर गुमाँ हुआ उस का है यक़ीं कोई दूसरा होगा 'ज़हरा' जो देखूँ सोचती हूँ वही सोचना छोड़ दूँ तो क्या होगा