सुना दी किस ने रूदाद-ए-ग़म-ए-दिल कोहसारों को मैं अक्सर सोचता हूँ देख कर इन आबशारों को गए मौसम का इक पीला सा पत्ता शाख़ पर रह कर न जाने क्या बताना चाहता है इन बहारों को चले आओ न रोकेगा ग़ुबार-ए-राह अब तुम को कि पुर-नम कर दिया अश्कों से मैं ने रहगुज़ारों को समझ पाए हैं इन को और न समझेंगे ख़िरद वाले दिल-ए-आशिक़ समझ लेता है जिन मुबहम इशारों को ख़बर-नामे की सुर्ख़ी में उन्हीं का ज़िक्र था 'नाज़िम' बताए थे जो मैं ने राज़ अपने राज़-दारों को