सुनहरी नींद से किस ने मुझे बेदार कर डाला दरीचा खुल रहा था ख़्वाब में दीवार कर डाला निशाँ होंटों का लौ देने लगा है ज़ेहन में अब तो बिल-आख़िर मैं ने उस को मिशअल-ए-रुख़्सार कर डाला नक़ाहत और बला का हुस्न और आँखों की दिल-गीरी अजब बीमार था जिस ने मुझे बीमार कर डाला मिरे दिल से लिपटती ज़ुल्फ़ भी तो देखता कोई सभी नालाँ हैं मैं ने शहर क्यूँ मिस्मार कर डाला मिरी उतरन से अपनी सतर-पोशी कर रहा है वो मिरे तर्ज़-ए-ग़ज़ल ने क्या उसे नादार कर डाला जो ख़ाइफ़ थे ग़ज़ल में ज़िक्र-ए-बग़दाद-ओ-बुख़ारा से वो ख़ुश हों मैं ने अब ज़िक्र-ए-लब-ओ-रुख़्सार कर डाला