सुनें न अब कोई क़िस्सा उभरने वालों से कि डर चुके हैं बहुत यूँ भी डरने वालों से सनद मिली थी उन्हें संग-आश्नाई की वो डर गए थे हबाबों पे मरने वालों से अदा-ए-तल्ख़-कलामी का दर्द सब को था गिला किसी को न था कान भरने वालों से गुज़रते लम्हों के मक़रूज़ बन के निकले थे हिसाब लेने लगे थे ठहरने वालों से हर एक बज़्म में 'शाहिद' ज़बान गंग रही बहुत क़रीब थे हम बात करने वालों से