सुनी है रौशनी के क़त्ल की जब से ख़बर मैं ने चराग़ों की तरफ़ देखा नहीं है लौट कर मैं ने फ़राज़-ए-दार से अपनों के चेहरे ख़ुद ही पहचाने फ़क़ीह-ए-शहर को जाना नहीं है मो'तबर मैं ने भला सूरज की तर्फ़ कौन देखे किस में हिम्मत है तिरे चेहरे पे डाली ही नहीं अब तक नज़र मैं ने यक़ीनन आँधियों ने आ लिया कूंजों की डारों को कि ख़ूँ-आलूदा देखे हैं फ़ज़ा में बाल-ओ-पर मैं ने तुम्हारे ब'अद मैं ने फिर किसी को भी नहीं देखा नहीं होने दिया आलूदा दामान-ए-नज़र मैं ने हज़ारों आरज़ूएँ रह गईं गर्द-ए-सफ़र हो कर सजा रक्खी है पलकों पे वही गर्द-ए-सफ़र मैं ने दम-ए-रुख़्सत मिरी पलकों पे दो क़तरे थे अश्कों के किया है ज़िंदगानी के सफ़र को मुख़्तसर मैं ने मैं अपने घर में ख़ुद अपनों से बाज़ी हार बैठा हूँ अभी सीखा नहीं अपनों में रहने का हुनर मैं ने 'सुरूर-अम्बालवी' अपने ही दिल में उस को पाया है जिसे इक उम्र तक आवाज़ दी है दर-ब-दर मैं ने