यूँ तो सब सामान पड़ा है लेकिन घर वीरान पड़ा है शहर पे जाने क्या बीती है हर रस्ता सुनसान पड़ा है ज़िंदा हूँ पर कोई मुझ में मुद्दत से बे-जान पड़ा है तभी चलें हैं इस क़ाफ़िले वाले जब रस्ता आसान पड़ा है शायर काँटों पर जीता था फूलों पर दीवान पड़ा है मेरे घर के दरवाज़े पर मेरा ही सामान पड़ा है यार 'शजर' दुनिया का फ़साना कब से बे-उनवान पड़ा है