सुराग़ मुझ से मिलेगा न रौनक़-ए-शब का चराग़ तो हूँ मगर बुझ चुका हूँ मैं कब का कहूँ ज़मीन तो वो आसमाँ समझता है कभी खुला ही नहीं आदमी है किस ढब का अजीब ढंग से थी जुस्तजू-ए-ज़ीस्त मुझे पियाला जैसे कोई तिश्ना गर्मी-ए-लब का ख़याल-ए-यार के पर्दे में रंज-ए-दुनिया था सुना गया है कुछ ऐसा ही क़िस्सा हम सब का उठे जो महफ़िल-ए-दुनिया से तो हुआ मा'लूम कि दाग़दार है दामन यहाँ तो हम सब का किया है जिस ने मुझे दर-ब-दर वो 'ग़ाफ़िल' है कि मैं वरक़ हूँ इसी आलम-ए-मुरत्तब का