सूरज से भी आगे का जहाँ देख रहा है इस दौर का इंसान कहाँ देख रहा है हालात ने जिस के सभी पर काट दिए हैं वो आज भी मंज़िल का निशाँ देख रहा है अय्यार बहुत है यहाँ तख़रीब का मोजिद वो बर्फ़ के जंगल में धुआँ देख रहा है इक रोज़ पकड़ लेगा वो क़ातिल का गरेबाँ जो वक़्त की रफ़्तार ज़बाँ देख रहा है सदियों के तअल्लुक़ का ये एहसास है शायद सहरा में हक़ीक़त को अयाँ देख रहा है इस सर-फिरे मौसम का भरोसा नहीं 'साक़िब' माहौल का सब बार-ए-गराँ देख रहा है