जिन के हाथों में कभी शीशा था पत्थर देखा वक़्त का कैसा ये बदला हुआ मंज़र देखा देख कर मुझ को तो मुँह फेर लिया करते थे आज क्या बात है तुम ने मुझे हँस कर देखा जल गया नख़्ल-ए-अना ख़ाक हुई शाख़-ए-ज़मीर चेहरा-ए-गुल ने अजब धूप का मंज़र देखा मेरे अस्लाफ़ ने एहसान किए थे जिन पर मैं ने उन को भी हरीफ़ों के बराबर देखा हम-सफ़र जिन को समझते थे उन्हें हम ने 'अलीम' आस्तीनों में छुपाए हुए ख़ंजर देखा