सूरज तिरी दहलीज़ में अटका हुआ निकला ये नुक़रई सिक्का कहाँ फेंका हुआ निकला हम ने कभी खींचा था जो उँगली से हवा पर वो नक़्श तो दीवार पे लिक्खा हुआ निकला शाम अपने तिलिस्मात में जकड़ी हुई आई चाँद अपने ख़यालात में डूबा हुआ निकला वो हश्र हुआ है कि तिरे हश्र का मंज़र पहले से कई मर्तबा देखा हुआ निकला इक याद मिरे ज़ेहन में बुझती हुई आई इक चाँद मिरे खेत से टूटा हुआ निकला ललकारा अँधेरे ने कि ख़ुर्शीद कहाँ है इक दीप कहीं ओट से सहमा हुआ निकला