सूरत-ए-वाक़िआ'त कुछ भी नहीं चुभ गई वर्ना बात कुछ भी नहीं ये चराग़-ए-हयात कुछ भी नहीं जब हुई ख़त्म रात कुछ भी नहीं दास्तान-ए-हयात क्या कहिए दास्तान-ए-हयात कुछ भी नहीं सच तो ये है कि बे-रुख़ी के बग़ैर क़ीमत-ए-इल्तिफ़ात कुछ भी नहीं इश्क़ की काएनात के सदक़े हुस्न की काएनात कुछ भी नहीं