मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत कहने लगे कि हाँ ग़लत और किस क़दर ग़लत तासीर-ए-आह-ओ-ज़ारी-ए-शब-हा-ए-तार झूट आवाज़ा-ए-क़ुबूल दुआ-ए-सहर ग़लत सोज़-ए-जिगर से होंट पे तबख़ाला इफ़्तिरा शोर-ए-फ़ुग़ाँ से जुंबिश-ए-दीवार-ओ-दर ग़लत हाँ सीने से नुमाइश दाग़-ए-दरूँ दरोग़ हाँ आँख से तराविश-ए-ख़ून-ए-जिगर ग़लत आ जाए कोई दम में तो क्या कुछ न कीजिए इशक़-ए-मजाज़-ओ-चश्म-ए-हक़ीक़त-निगर ग़लत बोस-ओ-कनार के लिए ये सब फ़रेब हैं इज़हार-ए-पाक-बाज़ी-ओ-ज़ौक़-ए-नज़र ग़लत लो साहब आफ़्ताब कहाँ और हम कहाँ अहमक़ बनें हम इस को न समझें अगर ग़लत सीने में अपने जानते हो तुम कि दिल नहीं हम को समझते हो कि है इन की कमर ग़लत कहना अदा को तेग़ ख़ुशामद की बात है सीने को अपनी उस की समझना सिपर ग़लत मिट्टी में क्या धरी थी कि चुपके से सौंप दी जान-ए-अज़ीज़ पेशकश-ए-नामा-बर ग़लत पूछो तो कोई मर के भी करता है कुछ कलाम कहते हो जान दी है सर-ए-रह-गुज़र ग़लत हम पूछते फिरें कि जनाज़ा किधर गया मरने की अपनी रोज़ उड़ानी ख़बर ग़लत आयत नहीं हदीस नहीं जिस को मानिए है नज़्म-ओ-नस्र अहल-ए-सुख़न सर-बसर ग़लत ये कुछ सुना जवाब में 'नाज़िम' सितम किया क्यूँ ये कहा कि दा'वा-ए-उल्फ़त मगर ग़लत