ता-सुब्ह सारी रात वो रहती है अश्क-बार शबनम किसी के ग़म में अभी तक है सोगवार आता है रास्ते में नज़र जब कभी-कभार देखे है अजनबी की तरह मुझ को बार-बार लम्हे में एक राज़-ए-मोहब्बत को पढ़ लिया इक रोज़ इत्तिफ़ाक़ से आँखें हुई थीं चार मानिंद-ए-क़ैस नरग़ा-ए-वहशत में घिर गया सहरा में क्यों बगूला उड़ाता रहा ग़ुबार शीरीं से भीक लेने में क़ासिर है तीशा-गर हाथों में आबले हैं तो झोली है तार-तार थी रस्म-ए-रुख़्सती या जनाज़ा था दोष पर शानों पे कुछ उठाए हुए आदमी थे चार जब छोड़ कर चला गया वो जान-ए-गुल्सिताँ अब क्या करेगी आ के चमन में मिरे बहार 'शाहिद' है उस के बस में मिरी मौत और हयात चाहे रिहाई दे दे या ले जाए सू-ए-दार