ताबीरों को ढूँड रही हूँ ख़्वाबों की परवाह नहीं मंज़िल पर ही नज़र है मेरी रस्तों की परवाह नहीं उस को क्या मालूम कि सदियाँ लम्हों से ही बनती हैं सदियों की है फ़िक्र उसे इन लम्हों की परवाह नहीं अपने-पन का मतलब भी तो लोगों को मालूम नहीं मेरा अपना वो है जिस को अपनों की परवाह नहीं मैं ने दिल में ठान लिया था ज़ंजीरों को तोडुँगी लेकिन मेरे दिल ने पूछा रिश्तों की परवाह नहीं हम ने खाए ज़ख़्म 'विला' हम उन से दूर ही रहते हैं फूलों से वो खेले जिस को काँटों की परवाह नहीं