ताबिश-ए-दंदाँ से उन के रिश्ता-ए-गौहर खुला आसमाँ पर जल्वा-ए-रुख़्सार से अख़्तर खुला सामने बैठे थे वो ख़ल्वत थी और कोई न था ऐसे आलम में हमारे शौक़ का दफ़्तर खुला मुनकिर उस बुत के जो हैं पाते हैं वो अच्छी सज़ा चूमते हैं जा के का'बा में वही पत्थर खुला मैं शमीम-ए-निकहत-ए-गुल का कहाँ पाऊँ दिमाग़ सामने यूँ तो निगाहों के है इक मंज़र खुला जब चली औरों पे क्या बे-आब हो कर रह गई मेरी गर्दन पर चली तब तेग़ का जौहर खुला इक तिलिस्म-ए-आब-ओ-गिल ही तो है सारी ज़िंदगी राज़ ये कोई बताए जीते जी किस पर खुला वहशत-ए-अहल-ए-जुनूँ इस दर्जा अब मादूम है रात-दिन रहने लगा ज़िंदाँ का अब तो दर खुला बन गई कुंजी ज़मीन-ए-शेर-ए-ग़ालिब क्या कहूँ या'नी 'माहिर' आज ये क़ुफ़्ल-ए-सुकूत आख़र खुला