हुस्न-ए-शिआ'र में मुझे ढलने नहीं दिया उस ने किसी भी गाम सँभलने नहीं दिया हाइल रह-ए-हयात में हस्सासीयत रही इस दिल ने दो क़दम मुझे चलने नहीं दिया रक्खा ब-सद ख़ुलूस रग-ओ-पै में मुस्तक़िल लम्हा कोई भी दर्द का टलने नहीं दिया कुछ वो भी चाहता था यहाँ मुस्तक़िल क़याम मैं ने भी उस को दिल से निकलने नहीं दिया महफ़िल को जो दिया तिरे अंदाज़-ए-दाद ने ऐसा मज़ा तो मेरी ग़ज़ल ने नहीं दिया इक बार ए'तिराफ़-ए-मोहब्बत पे उम्र भर हम ने उसे बयान बदलने नहीं दिया दरिया हज़ार दिल में बिफरते रहे मगर आँखों में कोई अश्क मचलने नहीं दिया 'ताहिर-अदीम' अपना दिया क्या जलाएगा जिस ने मिरा चराग़ भी जलने नहीं दिया