ताइर है आए आए न आए ज़फ़ील पर आख़िर को आ गिरेगा बदन की फ़सील पर ऐसी भी क्या ख़ता थी जो सुख-चैन ले गई माज़ी में झाँकता हूँ इसी इक दलील पर कमरे की फिर फ़ज़ा में है मानूस सी महक फिर ख़्वाब कोई उतरा है नींदों की झील पर मैं ख़्वाहिशों की उम्र से आगे निकल गया तस्वीर हो गया हूँ लटकना है कील पर क़ातिल के हक़ में क़ाज़ी गवाही भी दे गया इल्ज़ाम है फ़क़त ये हसीन-ओ-जमील पर 'साबिर' जहाँ लिखा था सफ़र उम्र भर का है कुछ नक़्श-ए-पा बने थे उसी संग-ए-मील पर