तज़्किरे में तिरे इक नाम को यूँ जोड़ दिया दोस्तों ने मुझे शीशे की तरह तोड़ दिया ज़िंदगी निकली थी हर ग़म का मुदावा करने चंद चेहरों ने ख़यालात का रुख़ मोड़ दिया अब तो आ जाएँ मुझे छोड़ के जाने वाले मैं ने ख़्वाबों के दरीचों को खुला छोड़ दिया क़द्र-दाँ क़ीमत-ए-बाज़ार से आगे न बढ़े फ़न की दहलीज़ पे फ़नकार ने दम तोड़ दिया उस चमन में भी तुम्हें चैन मयस्सर न हुआ जिस चमन के लिए तुम ने ये चमन छोड़ दिया यूँ तो रुस्वा-ए-ज़माना सही लेकिन उस ने मेरे साथ आ के नए दौर का रुख़ मोड़ दिया मैं मुसाफ़िर नहीं आवारा-ए-मंज़िल हूँ 'बशीर' गर्दिश-ए-वक़्त ने ये देख के दम तोड़ दिया