तजल्लियाँ हैं कि इन का कोई हिसाब नहीं निगाह-ए-शौक़ है और देखने की ताब नहीं जुनून-ए-इश्क़ में अहल-ए-तलब से होता है वो इक गुनाह जो मुस्तौजिब-ए-अज़ाब नहीं जहाँ पे ज़ेहन ही मफ़्लूज हो के रह जाए उसे कुछ और ही कहिए वो इंक़लाब नहीं समझना चाहें जिसे और समझ में आ न सके तो फिर वो ज़िंदगी क्या है अगर सराब नहीं करम की फिर भी तवक़्क़ो तो है मुझे उस से ये और बात दुआ मिरी मुस्तजाब नहीं उसे तो बज़्म ही कहना गुनाह है 'ज़ैदी' वो बज़्म जिस में कि साक़ी नहीं शराब नहीं