वो इक नज़र जो दिल से जिगर तक उतर गई अफ़्साना-ए-हयात की तकमील कर गई क्या पूछते हो मुझ से जवानी किधर गई बस इतना याद है इधर आई उधर गई उन की निगाह-ए-लुत्फ़ ये एहसान कर गई दामान-ए-दिल उमीद के फूलों से भर गई क्या जाने कोई कैसी क़यामत उठाएगी दिल से निकल के आह फ़लक तक अगर गई अपनी जगह क़रीने से हर शय है बज़्म में वो क्या गए कि रौनक़-ए-दीवार-ओ-दर गई दो दिन में उन के फूल से चेहरे को क्या हुआ दो दिन में उन की चाँद सी सूरत उतर गई 'ज़ैदी' ब-फ़ैज़-ए-मर्ग ये साबित हुआ कि ज़ीस्त मोती की इक लड़ी थी कि टूटी बिखर गई