ताक़त-ए-सब्र तिरे बे-सर-ओ-सामाँ में नहीं इस्तक़ामत उसे इस आलम-ए-इम्काँ में नहीं ढूँढता क्या है उसे जा के इधर और उधर क्या तिरे दिल में नहीं दीदा-ए-हैराँ में नहीं क्या कहूँ आह मैं तश्बीह नहीं दे सकता कोई गुल ज़ख़्म-ए-जिगर सा तो गुलिस्ताँ में नहीं थाम सकते ही नहीं ख़ार-ए-बयाबाँ मुझ को तार बाक़ी कोई अब तो मिरे दामाँ में नहीं ले गया जज़्ब-ए-दिल-ए-ज़ार सनम तक उन को एक लाशा भी यहाँ गोर-ए-ग़रीबाँ में नहीं देख तो चीर के पहलू में दिखा देता हूँ जुज़ ग़म-ए-यार कोई इस दिल-ए-वीराँ में नहीं नौ-गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत हूँ यही बाइ'स है नग़्मा-ज़न मुझ सा कोई मुर्ग़ गुलिस्ताँ में नहीं हल्क़ा-ए-चश्म में ज़ंजीर के इन आ'ज़ा में ऐसी काहीदगी आई कि जो मिज़्गाँ में नहीं देख कर उस लब-ए-रंगीं को 'जमीला' ने कहा जो दमक इस में है वो ला'ल-ए-बदख़्शाँ में नहीं