तख़्ता-ए-मश्क़-ए-सितम मुझ को बनाने वाला था वही रोज़ मिरे ख़्वाब में आने वाला मुंतशिर कर दिया शीराज़ा-ए-हस्ती जिस ने ख़ाना-ए-दिल को मिरे था वो सजाने वाला रोज़ करता रहा वो वादा-ए-फ़र्दा मुझ से उम्र भर अहद-ए-वफ़ा था जो निभाने वाला उस ने मंजधार में कश्ती को मिरी छोड़ दिया था जो तूफ़ान-ए-हवादिस से बचाने वाला पहले करता था पस-ए-पर्दा मिरी बेख़-कुनी कामयाबी का मिरी जश्न मनाने वाला साबिक़ा जिस से पड़ा मस्लहत-अंदेश था वो ''दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला'' मार डाले न ये तन्हाई का एहसास मुझे मुंतज़िर जिस का था अब वो नहीं आने वाला जिस से दिल-जूई की उम्मीद थी निकला वो रक़ीब जिस को देखो है वही मुझ को सताने वाला ऐश-ओ-इशरत के सदा ख़्वाब दिखाता था उसे ग़म्ज़ा-ओ-नाज़ से 'बर्क़ी' को लुभाने वाला