यूँ तो न तेरे जिस्म में हैं ज़ीनहार हाथ देने के ऐ करीम मगर हैं हज़ार हाथ अंगड़ाइयों में फैलते हैं बार बार हाथ शीशा की सम्त बढ़ते हैं बे-इख़्तियार हाथ डूबे हैं तर्क-ए-सइ से अफ़सोस तो ये है साहिल था हाथ भर पे लगाते जो चार हाथ आती है जब नसीम तो कहती है मौज-ए-बहर यूँ आबरू समेट अगर हों हज़ार हाथ दरपय हैं मेरे क़त्ल के अहबाब और मैं ख़ुश हूँ कि मेरे ख़ून में रंगते हैं यार हाथ दामन-कशाँ चली है बदन से निकल के रूह खिंचते हैं फैलते हैं जो यूँ बार बार हाथ मिटता नहीं नविश्ता-ए-क़िस्मत किसी तरह पत्थर से सर को फोड़ कि ज़ानू पे मार हाथ साक़ी सँभालना कि है लबरेज़ जाम-ए-मय लग़्ज़िश है मेरे पाँव में और राशा-दार हाथ मुतरिब से पूछ मसअला-ए-जब्र-ओ-इख़्तियार क्या ताल सम पे उठते हैं बे-इख़्तियार हाथ मैं और हूँ अलाएक-ए-दुनिया के दाम में मेरा न एक हाथ न उस के हज़ार हाथ ऐ 'नज़्म' वस्ल में भी रहा तू न चैन से दिल को हुआ क़रार तो है बे-क़रार हाथ