तलाश-ए-यार में जाँ से गुज़र के देखते हैं जो ख़ाक हैं तो ज़मीं पर बिखर के देखते हैं वो किस ने देखी है गहराई शाम-ए-फ़ुर्क़त की उफ़ुक़ के पार ज़मीं पर उतर के देखते हैं सुना है उस की निगाहें शिकार करती हैं करिश्मे हम भी चलो फ़ित्ना-गर के देखते हैं अगर गुलाब ही उन को पसंद आते हैं तो क्यों न आज से हम भी सँवर के देखते हैं ये कौन शख़्स है जाने किधर से आया है दीवाने सारे हमें शहर-भर के देखते हैं ख़ुदा उन्हें तो बुरे दिन कभी न दिखलाए वो हौसले जो हमारे जिगर के देखते हैं हमारी आँखों में चश्मे से फूट पड़ते हैं कभी कभी वो हमें आँख भर के देखते हैं कलेजा थाम के रखना ऐ दोस्त महफ़िल में वो क्या से क्या न सितम हम पे कर के देखते हैं हमारे सर पे क़यामत सी टूट पड़ती है कभी ज़मीं से ज़रा सा उभर के देखते हैं तलाश-ए-यार में रहती है मेरी तन्हाई दयार-ए-ग़ैर में क्या क्या न कर के देखते हैं मिरा ही अक्स है मुझ से ख़फ़ा ख़फ़ा 'बरहम' तो क्यों न उस के ही हाथों से मर के देखते हैं