तलाश-ए-क़ब्र में यूँ घर से हम निकल के चले कफ़न बग़ल में लिया मुँह पे ख़ाक मल के चले हवा खिलानी थी दुनिया की मेरी मय्यत को उठाने वाले जो कांधा बदल बदल के चले जगह न दी हमें उस शम्अ'-रू ने पहलू में हवस बुझाने को आए थे और जल के चले उठा के बज़्म से हम ले चले जो ख़ल्वत में क़दम क़दम पे वो रूठे मचल मचल के चले यहाँ तक आए हैं तय हम दो-मंज़िला कर के तुम्हारी बज़्म में पहुँचे हैं आज-कल के चले शहीद-ए-नाज़ की मय्यत जो देखी गुल-दर-गुल कफ़न खसूट जो आए थे हाथ मल के चले कमंद-ए-काकुल-ए-पेचाँ से दूर दूर रहे क़ज़ा टले जो 'शरफ़' उस बला से टल के चल