तलाश-ए-मंज़िल-ए-राहत में हम जहाँ गुज़रे फ़रेब-ख़ुर्दा उमीदों के दरमियाँ गुज़रे कई हसीन उमीदों ने पाँव थाम लिए तिरी गली से जो इक बार ना-गहाँ गुज़रे भटक के रह गए राहों में सोचने वाले मगर जो अहल-ए-अमल थे रवाँ-दवाँ गुज़रे हज़ार बज़्म की सरगोशियों ने उकसाया मगर हम अहल-ए-ज़बाँ हो के बे-ज़बाँ गुज़रे